।।मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम।।

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ऊर्जा के अक्षय स्रोत है।

गंगा भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन रेखा है,तो श्री राम भारत की प्राणवायु है, इनके बिना भारत की कल्पना असंभव है। विजयदशमी पर्व पर भगवान राम की शिक्षा और चरित्र का वर्णन और उससे  सीख लेने का एक समसमायिक अवसर है, यद्यपि राम सर्वकालिक है।

श्री राम के चरित्र को पूर्णतः लिखना मानवीय शक्ति से परे है, फिर भी मैंने  अपनी अल्प बुद्धि अनुसार लिखने का प्रयास किया है, यद्यपि यह मेरे सामर्थ्य से परे है।

         भगवान राम का चरित्र युगों के बंधन से परे,हर व्यक्ति,वर्ग और समाज और राष्ट्र के लिए शिक्षाप्रद हैं, और उससे बहुत कुछ सीखा जा है।

राम का प्रत्येक कर्म अनुसरण करने योग्य है,सत्य,दया,क्षमा,मृदता,धीरता, वीरता, गंभीरता,विनय, शांति,तितिक्षा (दुःख सुख को समान भाव से सहना) मातृप्रेम,पितृज्ञा, मर्यादा, शरणागत वत्सलता, नीतिज्ञता, और व्यवहार कुशलता इत्यादि ।

   मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र में हम पाते हैं कि वे केवल पुण्यात्माओं एवं श्रेष्ठ बुद्धिमानों की संगति स्वीकार करते हैं।वे उदार है, अतिथियों के स्वागत में अग्रणी है, प्रजा वत्सल है,राम युवा शक्ति के प्रतीक हैं।राम अपराधियों को दंड देने और परोपकारियों को सम्मानित करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। 

    श्रीराम के जीवन में प्रतिकूलता में प्रतिरोध के बजाय सामंजस्य अधिक है।एक आदर्श शिष्य के रूप राम विश्वामित्र मुनि के साथ धर्म की रक्षा  का पहला प्रसंग यज्ञों की रक्षा व ऋषियों की रक्षा के लिए सिद्धाश्रम (बक्सर)की ओर गमन करते हैं, और ताड़का व सुबाहु का वध कर,मारिच को बिना फण वाले बाण से प्रहार कर बिना मारे सौ योजन दूर (1200किमी) दूर उछाल देते हैं। उक्त प्रसंग में श्रीराम की गुरु भक्ति और अपरिमित बल दोनों संयुक्त रूप से प्रगट होते हैं,साथ ही धनुष यज्ञ में पिनाक धनुष को भंग कर सभी बलशालियों के बल के गर्व का मानमर्दन विनम्रतापूर्वक कर देते हैं।

      एक आदर्श पुत्र के रूप में राम बिना हिचक और संशयरहित होकर माताज्ञा का पालन किया। मति भ्रष्ट कुब्जा दासी (मंथरा) द्वारा कैकयी प्रेरित होकर जब,कैकयी ने भरत के लिए सिंहासन और राम के लिए वनवास मांगा तब श्री राम ने संशयरहित होकर उसे स्वीकार कर लिया। रामचरितमानस के अयोध्या काण्ड में गोस्वामी जी लिखते है, "सुन जननी सोइ सुत बडभागी।जो पितु-मात बचन अनुरागी"। हे मां वह पुत्र बडा भाग्यशाली हैं जो माता-पिता के बचन का प्रेम सहित पालन करता है। जबकि पुत्र मोह से ग्रस्त पिता दशरथ को कहते हैं,हे पिता मैं इस संसार में लोभ एवं काम के दास की भांति नहीं जीना चाहता, मैं ऋषियों की भांति सदैव न्याय और दिये गए के प्रति समर्पित हूं  तुच्छ राज्य के लिए मैं न्याय मार्ग से व्यथित नहीं हो सकता। 

      अपने कुल गुरु वशिष्ठ और पुरोहित जाबालिक और भाई भरत द्वारा अयोध्या वापस लौटने के प्रस्ताव  को यह कह कर ठुकरा देते हैं कि "पिता की आज्ञा (वचन)का पालन करना उनके लिए सर्वश्रेष्ठ धार्मिक सिद्धांत है। 

  चित्रकूट में उन्होंने भरत को राजधर्म की जो शिक्षा दी वह आज भी किसी भी शासक और शासन के लिए सफलता और प्रजावत्लता की कुंजी है। भरत को राजधर्म का उपदेश देते हुए कहा कि राजा को निम्न दुर्गुणों से दूर रहना चाहिए। नास्तिकता, पाखंड,क्रोध, दीर्घसूत्रता (विलंब) आलस्य, इंद्रियों की अधीनता, रहस्यों को गुप्त रख पाने की अयोग्यता, अयोग्य मंत्रीमंडल, योजना में अव्यवहारिक, से दूर रहना चाहिए।राजा को अधिक बोलने वाले, अपशब्दों का प्रयोग करने वाले, संपत्ति का हरण करने वाले,व अन्यायी इन चार किस्म के व्यक्तियों से दूरी रखनी चाहिए।  विदेश नीति पर भरत को सीख देते हुए कहते हैं कि राजा को इन शासकों से कोई संबंध नहीं रखना चाहिए,जो युद्ध में पराजित हो, किशोर हो तथा अनुभवहीन हो,अपदस्थ हो, क्रोधी हो,कायर हो, इंद्रियों के दास हो, हमेशा राज्य से बाहर रहे, मंत्रीयो द्वारा तिरस्कृत हो, युद्ध में पराजित हो,तथा जिनके अनेक शत्रु हो। साथ भरत को उपदेश देते हैं श्रीराम कहते हैं कि,राजा को तीन प्रकार के पराक्रम क्रमशः शक्ति, प्रभुत्व और ज्ञान से युक्त होना चाहिए।

राजधर्म और राज्य की सफलता के संबंध में शिक्षा देते हुए कहते है,जिस राज्य में धर्म (सत्य, ईमानदारी,दया, और दान)का पालन होता है, जिस राज्य में स्त्रियों का सम्मान और सुरक्षा होती हो, जहां ज्ञानियों का सम्मान हो, तथा कलह होने पर निष्पक्ष न्याय होता हो वह राज्य सफल और चिरंजीवी होता है।श्रीराम के जीवन में केवल प्रेम था,वह भी निश्च्छल प्रेम जातिगत भेद भाव से परे प्रेम जो हमें निषाद राज गुह और शबरी के परिप्रेक्ष्य में परिलक्षित होता है, यद्यपि निषाद राज उनका मित्र था।पशु पक्षियों से प्रेम गिद्धराज जटायु और सुग्रीव से मित्रता में प्रगट होता है। श्रीराम ने सदैव उपेक्षित और वंचितों को सहारा दिया,तभी तो वानर और रीछ उनके मित्र बने। श्रीराम के समान कोई मित्र भी नहीं हो सकता।तभी तो वानरराज सुग्रीव से मित्रता करते समय उन्होंने  मित्रता के निम्न लक्षण बताए, जिसका किष्किन्धाकाण्ड में गोस्वामीजी ने वर्णन किया है।

जे न मित्र दुःख होहि दुखारी।

तिन्हहि विलोकत पातक भारी।।

निज दुःख गिरी सम रज कर जाना।

मित्रक दुःख रज मेरू समाना।।

      राम  न्यायप्रिय व्यक्तित्व की प्रतिमूर्ति थे। यद्यपि उन्होंने राजमहल  त्याग,तापस वेष धारण किया था,पर धर्म और न्याय हेतु धनुष का त्याग नहीं किया था। तभी तो जब बालि उन पर धोखे से मारने का आरोप लगाया तब राम उसका उत्तर देते हैं उसके शंका का समाधान करते हुए कहते हैं।

"अनुज वधू भग्नि सुत नारी,

 सुन सठ कन्या सम ए चारी।

इन्ही कुदृष्टि विलोकई जोई,

ताहि बधे कछु पाप न होई।।

अनुज वधू,बहन,पुत्र वधू, और स्वयं की कन्या पर जो कुदृष्टि रखता है उसे  मारने में कोई पाप नहीं होता, और तुमने अपने भाई सुग्रीव की पत्नी रूमा पर मलिन दृष्टि डाली इसलिए तु वध करके योग्य है। दूसरा तर्क देते हुए राम बालि से कहते हैं कि,इस संपूर्ण धरती पर इक्ष्वाकु वंश का शासन है, और किसी पर प्रसन्न होने पर पुरस्कार और धर्म विरुद्ध कार्य करने पर उसे दंड देने का पूरा अधिकार राजा को है।

तुमने क्रोध और लोभ से वशीभूत हो 

घृणित कार्य किया है,पापाचरण करने 

वाले को दंड न देने पर राजा स्वयं पाप 

का भागी होता है, इसलिए तुम्हें मारा।

रही बात तुम्हें छिप कर मारने कि तो 

आखेट के समय असावधान पशु को मारना क्षत्रिय धर्म के अनुकूल है।

           श्रीराम शरणागत वत्सल है,शरण में आए व्यक्ति का त्याग नहीं करते हैं, जबकि विभिषण दशानन का भाई था।जिसका उल्लेख गोस्वामीजी सुंदरकांड में किया है।

सरनागत कहु जे तजहि निज 

 अनिहत अनुमानी

ते नर पावर पापमय,

तिन्ही बिलोकत हानि।।

अर्थात शरण में आए व्यक्ति को अपने हित और अनहित का अनुमान कर त्यागने वाले नीच और पापी है, जिन्हें देखना भी पाप है।

राम विनय और शक्ति के संधि स्थल है। सर्वशक्तिमान होने के बाद भी वे समुद्र से रास्ता मांगने के लिए तीन दिनों तक समुद्र से प्रार्थना करते हैं, लेकिन समुद्र अहंकारवश उनके विनय को अमान्य कर देता है। सागर के असहयोग से क्रुद्ध होकर राम कहते हैं,"इस भौतिक युग में दुराचारी व्यक्तियों के समक्ष धैर्य, क्षमाशीलता और नम्रता जैसे गुण अनुपयोगी है।

जिसका सुंदर काण्ड में गोस्वामी जी  लिखते हैं।

"विनय न मानत जलधि जड़,

 गए तीनि दिन बीत।

बोले राम सकोप तब,

भय बिनु होई न प्रीति।।

   राम के चरित्र में अगाध देशप्रेम है, लंका विजय के बाद जब स्वर्णिम लंका में निवास करने की बात लक्षण कहते हैं तब श्रीराम कहते हैं"अपि स्वर्णमयी लंड्का न में लक्षमण रोचते जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। अर्थात मातृभूमि स्वर्ग से भी महान है। राम ने मानव रूप में श्रीराम ने चमत्कार नहीं अपितु जो भी किया मानवीय शक्ति अनुरूप किया।

आज भी पराक्रम,साहस, नम्रता, देशभक्ति, मातृप्रेम, भ्रातृप्रेम , धैर्य 

की शिक्षा के लिए विश्व श्रीराम का ऋणी रहेगा।

            ।। मनोज कुमार सिंह।।

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने