राजनीति में गोटें कब और कैसे पलट जाए कुछ कहा नहीं जा सकता?22जनवरी 23 को पूरे भारत में भगवामय लहर देख कर सहसा कुछ क्षणों के लिए ऐसा लगा क्या इस प्रचंड लहर को भाजपा और भाजपा नेतृत्व साध सकेगी या नहीं ? लेकिन ठीक उसी तरह जैसे कुशल से कुशल तैराक प्रचंड लहरों के मध्य अपनी कुशलता खो देता है,240सीटें यही बयां कर रही है।
चार सौ पार तो महज एक मनोवैज्ञानिक जाल था। बावजूद अपने दम पर सरकार बनाती दिखती भाजपा महज 240पर सिमट गई क्यों?एक पड़ताल और समालोचना आवश्यक है। अपने निर्धारित लक्ष्य से कम सीटें मिलने का कारण,भाजपा उसके टिकट वितरण, उसके प्रत्याशी और केंद्रीय इच्छा का बलवती होना ये सब आपस में अंतर्गुथित है, जिसमें यूपी में कमजोर प्रदर्शन विशेषतः अयोध्या मुद्दे से सत्ता प्राप्त करने और बहुप्रतीक्षित राममंदिर निर्माण करने के बाद भी भाजपा अयोध्या से चुनाव हार गई। अयोध्या भाजपा की राजनीति में हिंदुत्व की जन्मस्थली है और वही से भाजपा की पराजय अपने आप में सबसे अविश्वसनीय है, वैसे भी राजनीतिक मे कुछ भी विश्वासयोग्य नहीं होता।
प्रधानमंत्री मोदी का बनारस से मात्र डेढ़ लाख मतों से जितना भी अपने आप में रोचक है। बनारस का कायाकल्प करने के बाद भी मोदी को जीत तो अवश्य मिली लेकिन ऐश्वर्या की कमी के साथ।जिसका मुख्य कारण भाजपा के मतदाताओं की उदासीनता, पिछड़े और दलितों का एकजुट हो जाना,और विपक्षी दुष्प्रचार, माननीय प्रधानमंत्री जी स्वंय का जनसंपर्क अधिकारी की भूमिका ही प्रमुख हैं, क्योंकि सत्ता और मोदी विरोधी लहर का आभाव था।
अनेकों जनहितकारी योजनाओं और उनकी सफलता के भाजपा वह जीत हासिल नहीं कर सकी जिसकी वह हकदार थी? लेकिन इस राजनीतिक पहेली का उत्तर जैन दर्शन के स्हायवाद/स्याद्वाद (हो भी सकता है?और नहीं भी हो सकता है?) में मिलता है,जो जनता की सोच की ओर इंगित करता है।
पंजाब, हरियाणा में तो सफलता संदिग्ध पहले से ही थी, राजस्थान में आपसी सहयोग का आभाव तो सर्वाधिक निर्णायक उत्तर प्रदेश में अपेक्षित सफलता का आभाव रहा है।
जिसके मुख्य कारण, केवल केंद्रीय नेतृत्व के द्वारा टिकट वितरण,योगी आदित्यनाथ का टिकट वितरण या जिसे सामाजिक बोलचाल में फ्री हैंड नहीं दिया जाना,और दलित, पिछड़े मतदाताओं का एक होना, और स्थानीय कार्याकर्ताओं को महत्व न दिया जाना महत्वपूर्ण है। महाराष्ट्र में क्षेत्रीय बहुदलीय मुकाबला था , अतः मतों में अंतर्विभाजन हुआ और भाजपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है।
वही दूसरी ओर पूर्व के चुनावों में बेरोज़गारी, महिला अत्याचार के विरुद्ध नारा था "अबकी बार मोदी सरकार" ,"सबके साथ सबका विकास"
लेकिन अबकी बार नारा गढ़ते समय भाजपा के नेताओं ने स्कूल के किसी परीक्षार्थी की तरह केवल खाली स्थान नही भरा है,जैसे ",अबकी बार" शब्द के आगे "चार सौ पार"लिख दिया था। लेकिन चार सौ सीटें क्यों?यह बताने में असफल रहे।
जबकि भाजपा ने अन्य दलों से शामिल लगभग 139नेताओ को टिकट दिया,जिसके कारण स्थानीय कार्यकर्ता भी उदास हुए।
दो सौ चालीस सीट पाने के बाद भी भाजपा मंथन कर स्थानीय रिपोर्ट मंगा रही। निःसंदेह मोदी का पिछला दो कार्यकाल सराहनीय और सफल रहा है। भाजपा के लिए यह आत्ममंथन का समय है। कुछ प्रबुद्ध वर्ग मानता है कि आरएसएस की उपेक्षा भी भाजपा के अपेक्षाकृत सीट न मिलने का एक कारण है। वैसे मोदी के नेतृत्व में देश विश्वास करता है।
लेकिन सबसे मजेदार बात यह है कि 99सीटें जीतने वाली कांग्रेस इस तरह व्यवहार कर रही है जैसे उसे पूर्ण बहुमत हासिल हो गया है,वे एनडीए सरकार की जीत को भी भाजपा की हार मानते हैं। कांग्रेस की उक्त राजनीति को देखकर भगवान कृष्ण का बाल हठ याद आता है,जब चंद्रमा मांगने पर माता यशोदा पानी भरे थाल में चांद का प्रतिबिम्ब दिखा कर खुश कर देती है। कांग्रेस यह भूल गई है कि 21/05/1991को राजीव गांधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस भावनात्मक आधार पर भी समर्थन नहीं जुटा सकी थी।स्व०पीवी (पामुलपति वेंकट) नरसिंहराव ने समर्थन की सरकार बनाई थी जिसमें झारखंड मुक्ति मोर्चा सांसद रिश्वत कांड भी हुआ था। राजनीति में मर्यादा आवश्यक होती है,पक्ष विपक्ष सभी के लिए।
2024 लोक सभा के परिणाम को देख कर लगता है जनता बड़े विचित्र स्वभाव की होती है वह क्षण भर मेघों की भांति रंग बदल लेती हैं,जिसे बुद्धिमान से बुद्धिमान भी नहीं पकड़ पाता।
"प्रियदर्शन"